

जवाहर लाल नेहरू ने कभी कहा था, "विश्वविद्यालय मानवता, सहिष्णुता, तर्क, विचारों की स्वतंत्रता और सत्य की खोज का प्रतीक होता है। यह सतत् उच्च उद्देश्यों की दिशा में मानव की प्रगति का प्रतीक है। यदि विश्वविद्यालय अपने कर्तव्य ठीक ढंग से निभाएं तो यह राष्ट्र और जनता के लिए बेहतर होगा"। विश्वविद्यालय की इस अवधारणा पर आज कई तरह के संकट हैं। यह बात कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं है कि यह संकट पिछले कुछ सालों की निर्मिति है। आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय बाहर से भले ही सुंदर दिखाई पड़ता हो, लेकिन यह वैचारिक रूप से खोखला हो गया है। उसका यह खोखलापन समय-समय पर उजागर होता रहता है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय ऐसा नहीं था। समय था 2013 का अगस्त महीना। पहली बार इलाहाबाद आया था। सिविल लाइंस बस अड्डे पर उतरा। यहां शहर को पहली बार देखा। पहली नज़र ही उन होर्डिंग पर गईं, जिन पर लोगों के विशाल फ़ोटो के नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा - छात्रसंघ अध्यक्ष पद हेतु, उपाध्यक्ष पद हेतु, महामंत्री पद हेतु। पहली बार में कुछ समझ नहीं आया कि माजरा क्या है। पूरा शहर इन्हीं पोस्टरों और बैनरों से पटा हुआ था। ऐसी कोई सड़क या विज्ञापन साइट नहीं थीं, जहां यह नजारा न देखने को मिलता। धीरे-धीरे सब कुछ समझ आने लगा।
प्रवेश लेने के बाद पहली बार कैम्पस में प्रवेश किया। वहां भी दीवालों पर यहीं चीज थी। पूरा कैम्पस पोस्टरों और पंपलेट से गुलजार था। जगह-जगह पोस्टर चिपके हुए थे। ज्यादातर पोस्टर प्रिंटिंग प्रेस में छपे थे लेकिन कुछ पोस्टर अपनी लिखावट और बनावट से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते। उर्दू विभाग और हिंदी विभाग के सामने की जगह का नाम अलग-अलग संगठनों ने अलग-अलग रखा था; इरोम लॉन और विवेकानंद पाइंट। यह हमेशा गोष्ठियों, व्याख्यानों, कविता और भाषणों से गुलजार रहता। लगभग क्लास से निकलने के बाद मैं यहां आकर बैठ जाता। क्लास से ज्यादा भारत के समाज, राजनीति और इतिहास को आलोचनात्मक नजरिए से यहां समझ पाया। पूरा कैम्पस अक्टूबर तक ऐसे ही गुलजार होता। कोई प्रत्याशी कहीं भाषण दे रहा होता, कोई कहीं और। यह छात्रसंघ चुनाव राजनीति की प्राथमिक पाठशाला होता। यहां से सीखकर कोई भी नेता के रूप में आगे बढ़ सकता था, चाहे उसकी कोई भी पृष्टभूमि हो। छात्र भी इससे बहुत कुछ सीखते थे। छात्रसंघ एक दबाव समूह के रूप में कार्य करता, जहां वह विश्वविद्यालय के किसी भी छात्र विरोधी कार्य का प्रतिरोध रचता। ऐसे में विश्वविद्यालय प्रशासन को भी सोच-समझकर कर कोई भी फैसला लेना होता।
जब मैंने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया उस समय वीसी के खिलाफ एक छात्र आंदोलन चल रहा था। वीसी कई दिनों से विश्वविद्यालय नहीं आ रहे थे। मुद्दा क्या था, यह तो मुझे जानकारी नहीं, लेकिन जल्दी ही उन्हें झुकना पड़ा। वह इस्तीफा देकर चले गए। दूसरे वीसी ने बहुत सारे अच्छे कार्य किए लेकिन सबसे ख़राब काम किया छात्रसंघ को हटाकर छात्र परिषद को लागू करना। छात्रसंघ मूल रूप से खत्म हो गया। दरअसल उन्हें भी छात्रसंघ की ताकत का एहसास हो गया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई फीस वृद्धि को उन्हें आंदोलन के कारण वापस लेना पड़ा था। दूसरे कई ऐसे कार्य थे, जिनका छात्रसंघ ने विरोध किया। ऐसे में उन्होंने छात्रसंघ को हटाने का निर्णय लिया। जैसे ही छात्रसंघ हटाया गया। विश्वविद्यालय में प्रशासन की तानाशाही बढ़ती गई। नई कुलपति के तानाशाही रवैए ने इसे और बढ़ा दिया गया।
विश्वविद्यालय के पतन के दिन यहां से शुरू हुए। विश्वविद्यालय की अवधारणा पर कुठाराघात करते हुए नई कुलपति ने कई निर्णय लिए। फीस को 400 गुना बढ़ा दिया गया। कैम्पस के लोकतांत्रिक माहौल को न्यूनतम किया गया। छात्रसंघ के भवन पर ताला लगा दिया गया। विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए छात्र होना अनिवार्य कर दिया गया। छात्र आंदोलन को निर्ममता से कुचला गया। अभिव्यक्ति पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए गए। किसी भी कार्यक्रम के लिए अनुमति अनिवार्य कर दी गई। धरना प्रदर्शन की मनाही की गई। दीवारों पर किसी भी तरह की कलाकृति या पोस्टर लगाने की मनाही की गईं। आंदोलन में शामिल छात्रों को पीटा गया। उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाकर जेल भेज दिया गया। कैम्पस में शाम 6 बजे के बाद छात्रों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार छात्रसंघ द्वार को बंद कर दिया गया। विज्ञान संकाय के द्वार पर बकायदा दीवार बना दी गई। ऐसे तमाम छात्र विरोधी कार्य विश्वविद्यालय प्रशासन ने किया। इन सभी कार्यों के कारण विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालय न होकर कुछ लोगों का अड्डा जैसा हो गया, जहां बिना उनकी अनुमति के आप कुछ नहीं कर सकते हैं। वह आपको जेल भेज सकते हैं। आपका नामांकन रद्द कर सकते हैं। विश्वविद्यालय में प्रवेश से वंचित कर सकते हैं। और तो और आपको आफिस में बुलाकर गाली देते हुए, नंगा करके पीट सकते हैं। यह आज के समय विश्वविद्यालय का चरित्र है।
आज के इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय जैसा कुछ नहीं है। जैसे लगता है कि इसे एक निजी इंटर कालेज में तब्दील कर दिया गया है, जहां आप तभी जा सकते हैं, जब आपके पास पहचान पत्र हो। शाम को नहीं जा सकते हैं, भले ही आप वैध छात्र हो। एक नवप्रवेशी प्रथम वर्ष का छात्र यहां कुछ नहीं सीख सकता है सिवाय क्लास रूम की पढाई के। छात्रसंघ का चुनाव सिर्फ चुनाव नहीं था, वह एक ऐसी क्लास था जो सम्पूर्ण कैम्पस में ही चलता था। यहां छात्र खुद से प्रयोग करते और सीखते। यह सीख उन्हें एक आलोचनात्मक नजरिए से भारतीय राजनीति और समाज को समझने की समझ देता। वह विश्वविद्यालय की ग़लत नीतियों का विरोध करते हुए राज्य और सरकार की नीतियों का भी आलोचनात्मक मूल्यांकन करने में सक्षम होता। हमने कितने छात्र नेताओं को भाषण देते हुए सुना और उनसे सीखा। मैंने खुद बोलने का यह कौशल यही से विकसित किया। नही तो शाय़द ही मैं बोलने में उतना सक्षम नहीं होता। विश्वविद्यालय की अवधारणा को खारिज करके उसे एक तानाशाही ढांचे में परिवर्तित कर देना, फिर यह कहना कि हम विश्वगुरु बनेंगे। बहुत बड़ी मूर्खता है।
विश्वविद्यालयों की मुक्ति और लोकतांत्रिक संस्कृति के बिना नई शिक्षा नीति का कोई मतलब नहीं है। नई शिक्षा नीति अंतर्विषयक शिक्षा को बढ़ावा देने की बात करती है। छात्रसंघ और विश्वविद्यालय का लोकतांत्रिक माहौल यही करता है। इसलिए विश्वविद्यालय में इसे बहाल करना चाहिए। तब जाकर सही मायने में हम विश्व गुरु की राह पर आगे बढ़ेंगे।