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शिक्षा संकायों से ज़रूरी मुद्दों पर बहस और परिचर्चाएं क्यों लुप्त हो रही हैं?

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परमेश आचार्य की एक किताब है, “देशज शिक्षा, औपनिवेशिक विरासत और जातिय विकल्प।” किताब के पहले पन्ने के शुरुआत में उन्होंने जो बात लिखी है उसे समझने में हमें ना जाने और कितना समय लगने वाला है। उन्होंने जो कहा है उसका सार है, “भारतीय विश्विद्यालयों का चरित्र इस प्रकार है कि उसे पूरी दुनिया की चीज़ें नज़र आती है, उसे पूरी दुनिया की फिक्र रहती है, सिवाय उन चीज़ों की जो उसकी अपनी है और जिसके प्रति वो ज़िम्मेदार हैं।”

शिक्षाशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मैं यहां इस बात को शिक्षा के उदाहरण से स्पष्ट करूंगा। हम देशभर के शिक्षा संकायों के उदाहरण ले सकते हैं। जिन विश्विद्यालयों की जानकारी ऑनलाइन अपडेट होती रहती है, वहां के शिक्षा संकायों में चलने वाले सेमिनारों और अन्य बौद्धिक सम्मेलनों के बारे में अनुमान लगाया जाए तब आपको एहसास हो जाएगा कि शिक्षा संकायों का काम बस पढ़ना-पढ़ाना है और शिक्षाशास्त्र को एक घोर अकादमिक विषय के रूप में समझना ही रह गया है।

देशभर के शिक्षा संकायों में चलने वाली अकादमिक बहसों और सेमिनारों का तर्जुमा कुछ ऐसा होता है कि शिक्षा कोई मंगल ग्रह की चीज़ है। इसका इस समाज और इसकी संरचना से कोई लेना देना ही नहीं है।

हम वर्तमान हालातों की बात करें तो शिक्षा से जुड़े कुछ बेहद ही ज़रूरी मसले हैं, जैसे- प्राथमिक शिक्षा की तबाही, उच्च शिक्षा पर नवउदारवादी हमला, WTO और IMF की नीतियां, समान स्कूल प्रणाली, शिक्षा का बढ़ता बाज़ारीकरण और हाशिये पर खड़े तबकों की पहुंच से दूर की जा रही शिक्षा। मगर क्या आपको पता है कि कितने शिक्षा संकायों ने इन मसलों पर कोई परिचर्चा आयोजित की है? जामिया मिल्लिया इस्लामिया और एक दो अन्य विश्विद्यालयों के संकायों को छोड़ दिया जाय तो देशभर के संकायों में इन मुद्दों पर कोई सुगबुगाहट तक नहीं है।

मैं ये नहीं कह रहा हूं कि इन मुद्दों पर शिक्षा संकायों को सड़क पर आकर सरकारी नीतियों का विरोध करना चाहिए, क्योंकि विश्विद्यालयों को पहले तो इतनी स्वायत्ता नहीं है और कुछ अपवादों को छोड़कर भारत के अध्यापकों में इतना साहस भी कभी नहीं रहा है।

जैसा मैंने कहा है कि फिलहाल मेरे पास आंकड़े नहीं है और इस बात पर अध्ययन और शोध किया जाना चाहिए। जब सरकारें शिक्षा व्यवस्था पर सुनियोजित हमले करके सब कुछ बर्बाद कर रही थी, तब देशभर के शिक्षा संकायों के लिए चिंता के प्रमुख विषय क्या थे? वो किन मसलों पर बात कर रहे थे? निश्चित तौर पर इस अध्ययन के परिणाम बड़े दिलचस्प आएंगे।

मेरा अनुमान है कि जब शिक्षा की तबाही की जा रही है तब “शिक्षकों में मानसिक तनाव, शिक्षक की चुनौतियां और शिक्षकों में जॉब सेटिस्फेक्शन” शिक्षा संकायों के प्रिय मुद्दे हैं। मैं ये बिल्कुल भी नहीं कह रहा हूं कि ये मुद्दे शिक्षा से जुड़े नहीं हैं या इनका महत्व नहीं है। मेरा बस इतना कहना है कि ये मुद्दे अस्तित्व में तब ही रहेंगे, जब शिक्षा बचेगी।

जब उच्च शिक्षा पर नवउदारवादी हमले लगातार बढ़ने लगे हैं तब ये मुद्दे द्वितीयक बनकर रह गए हैं। पहले 1994-95 में DPEP के नाम पर प्राथमिक शिक्षा तबाह कर दी गई, फिर बहुस्तरीय स्कूल व्यवस्था को सरकारी प्रोत्साहन दिया गया और RTE के नाम पर देशभर के वंचित वर्गों से आने वाले बच्चों को घटिया शिक्षा की ओर धकेल दिया गया। मगर इतना सब होने पर भी शिक्षा को लेकर कोई खास बहस नहीं दिखी।अनिल सदगोपाल जैसे कुछ प्रोफेसरों ने इसे लेकर जन-आंदोलन खड़ा करने का संघर्ष किया जिसकी लड़ाई अभी भी जारी है।

हालांकि ये ज़िम्मेदारी सारे विषयों के विद्यार्थियों और अध्यापकों की है कि वो शिक्षा को तबाह करने के प्रयासों को समझें और उसका विरोध करें। मगर शिक्षाशास्त्र के विद्यार्थियों और अध्यापकों की ये प्राथमिक और विशेष ज़िम्मेदारी है। इस तरह के मुद्दों और बहसों के अधिकांश मामलों में शिक्षाशास्त्र के अध्यापक इसे राजनीति बता कर खुद तो इससे दूर रहते ही हैं, यहां तक कि विद्यार्थियों को भी इससे दूर रखने का प्रयास किया जाता है।

शिक्षाशास्त्र के विद्यार्थियों से अगर निजीकरण, उच्च शिक्षा पर नवउदारवादी हमले, UGC, HEFA और HECI की बात की जए तो अधिकांश इससे उदासीन ही नज़र आते हैं। उनके हिसाब से इन सबसे उनका क्या मतलब? वो पढ़ने आए हैं, कोई राजनीति करने नहीं। उनका काम पढ़ना, शिक्षा के बारे में जानना और उसे परीक्षा पुस्तिका में अच्छे से लिखना है।

मैं भी कहां कह रहा हूं कि विद्यार्थी कुछ और करें। शिक्षाशास्त्र का विद्यार्थी होने पर शिक्षा के बारे में ही तो बात करनी होती है। अगर एकबारगी ये निष्कर्ष निकाला जाए कि देशभर के अधिकांश विश्विद्यालयों के शिक्षा संकाय मंगल ग्रह पर स्थित हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

अगर देश के हालात के बनिस्बत शिक्षा संकायों की हालात पर एक नज़र डाली जाए, तो यह कहावत, “रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था” जैसी हालात शिक्षासंकायों के साथ है। जब देशभर में सरकारें शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करते हुए और जनता को शिक्षा के उसके बुनियादी हक से वंचित कर रही है तब शिक्षा संकाय शिक्षकों में ‘जॉब सेटिस्फेक्शन’ तलाश रहें हैं।

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