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लखनऊ विश्वविद्यालय में स्टूडेंट-टीचर मारपीट की ज़िम्मेदारी किसकी?

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पिछले हफ्ते लखनऊ यूनिवर्सटी मे हुए बवाल ने बहुत फुटेज बटोरा। फेसबुक पर दोनों पार्टियों ने धुआंधार पोस्ट की बरसात की। छात्रों की तरफ से प्रॉक्टर और टीचर्स को पीटने को लेकर जहां फिल्मी डायलॉग चिपकाया गया तो वहीं दूसरी तरफ बुद्धिजीवियों की तरफ से ऐसे गुंडे टाइप छात्रों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की सिफारिशें झोंकी गई। मेन स्ट्रीम मीडिया में जिस तरीके से शिक्षक बनाम दागी छात्रों का मसालेदार आइटम बनाकर पेश किया जा रहा है उसपर यकीन करें तो लगता है कि यूनिवर्सटी अब बस गुंडो का अड्डा हो गया है। यहां ना तो शिक्षक सुरक्षित हैं ना ही आम छात्र।

यूं तो लविवि(लखनऊ विश्वविद्यालय) में छात्रों का आपस में सिर-फुटौव्वल पारंपरिक रूप से होता आया है, लेकिन लम्बे समय बाद ऐसा हुआ है कि छात्र शिक्षकों पर टूट पड़ें। वक्त रहते अगर यूनिवर्सिटी प्रशासन गुंडों को शह देना बंद कर देती तो इस तरह की घटना नहीं हुई होती। तमाम भर्त्सना, निंदा, आरोप और कार्रवाई से इतर अगर कोई एकआध पत्रकार साथी थोड़ा सा ग्राउंड लेवल पर जांच पड़ताल करते तो तस्वीर कुछ बेहतर साफ होकर सामने आती लेकिन क्या करें आजकल वही ट्रेंड है जो दिख रहा है।

इस मामले में अब तक कई गिरफ्तारियांं हो चुकी हैं और दोषियों को उनके समर्थकों द्वारा फूल माला पहना इस तरह जेल भेजा गया जैसे उन्होंने कितना क्रांतिकारी काम कर दिया हो। दूसरी तरफ यूनिवर्सिटी प्रशासन इस मामले में खुद को दूध का धुला हुआ बता रही है। कुछ वक्त पहले लविवि प्रशासन गेट नं. एक पर स्थित सरस्वती प्रतिमा को छात्रों के लिए धरने का अवैध अड्डा घोषित करती है उसके कुछ वक्त बाद ही LUTA(Lucknow University Teacher’s Association) पदाधिकारी और शिक्षकगण उसी ‘अवैध’ अड्डे पर धरना देते नज़र आते हैं।

जिन निलंबित छात्रों ने यहां बवाल खड़ा किया उनमें एक भी क्रिमिनल टाइप का नहीं मिलेगा। पिछले कुछ सालों से लविवि मे राजनीतिक रूप से उभर रहे छात्रों को चिन्हित किया जाता है और फिर फर्ज़ी मामलों में निलंबित/निष्कासित किया जाता है। छात्रा पूजा शुक्ला को मुख्यमंत्री योगी को काला झंडा दिखाने के आरोप में एडमीशन देने पर रोक लगा दिया गया है जबकि काला झंडा प्रकरण के वक्त पूजा विश्वविद्यालय की छात्रा ही नहीं थी। ये घटना उन्हीं निलंबित/निष्कासित छात्रों के एडमिशन पर लविवि के अड़ियल रवैये को लेकर था। राजनीतिक रूप से उभर रहे छात्रों को क्रिमिनल कहकर एलिमिनेट किया जा रहा है जबकि हकीकत यह है कि क्रिमिनल बैकग्राउंड के छात्रों को यूनिवर्सटी खुद हमेशा से पनाह देता आया है।

अलग-अलग कोर्स में एडमिशन को लेकर समाजवादी छात्रसभा के कुछ कार्यकर्ता भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो कुछ यूनाइटेड तरीके से हमला करते हैं। बेशक ये सोची समझी साज़िश हो सकती है लेकिन इस मसले में लविवि प्रशासन को पाक-साफ भी नहीं माना जा सकता। तो जिस तरह छात्र बनाम शिक्षक का ये मसला खड़ा हुआ है दरअसल वो राजनीति बनाम राजनीति का मुद्दा है।

ये घटना शुद्ध रूप से संसदीय राजनीति से प्रेरित है। इस मसले में प्रत्यक्ष रूप से ना तो कोई आम छात्र संबंधित है ना ही कोई आम टीचर। यहां शासन और विपक्ष की वैचारिक किटकिटाहट ज़मीनी स्तर पर यूनिवर्सटी कैंपस मे पैठ बना चुकी है।

इस मामले में अब तक लविवि चौकी प्रभारी, एसएचओ, निलंबित हो चुके हैं। कुछ छात्रों की धर-पकड़ जारी है, कैंपस कर्मचारी से लेकर राज्यपाल तक इस मामले में हिल चुके हैं। शासन बहुत ही कड़ाई से इस मामले में नज़र रखे हुए है लेकिन सवाल है कि ऐसे हालात पैदा क्यों हुए कि छात्रों ने शिक्षकों पर हमला कर दिया। किसी भी मीडिया ग्रुप ने इस बात की पड़ताल नहीं की। एक लाइन से सबने फैसला सुनाना शुरू कर दिया कि लविवि मे गुंडे पलते हैं कुछ हद तक बात सही भी है लेकिन इसके लिए सिर्फ छात्र या छात्रनेता ही नहीं लविवि प्रशासन भी बराबर का हिस्सेदार है।

2013 में महिला सुरक्षा और विश्वविद्यालय के बुनियादी सवाल को लेकर आवाज़ उठा रहे तत्कालिक छात्रनेता सुंधाशु बाजपेयी की लविवि प्रशासन ने बीच कैंपस मे पिटाई करवा दी। जनवरी 2015 के तत्कालिक प्राॅक्टर मनोज दीक्षित भी आपा खोकर छात्रों को मारने दौड़ पड़े और फिर उल्टे उन छात्रों पर हमला करने और अराजकता फैलाने का आरोप लगाकर निलंबित किया।

2014 मे एपीसेन सभागार मे प्रस्तुति दे रही लड़कियों पर सिक्के उछालने वाले अराजक तत्वों को ‘लड़के हैं, एक्साइटमेंट मे कर दिया होगा’ जैसे गैर ज़िम्मेदाराना बयान देकर छोड़ने वाले लोग लविवि प्रशासन के ऐसे हिस्से हैं जिनपर कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई। प्रशासन पूरी तरह से निरंकुश है जिसपर कोई लगाम नहीं है। ऐसे में कोई दुस्साहसवादी, सवैंधानिक रास्तों से थक हारकर असंवैधानिक प्रतिक्रिया दे दे तो लविवि प्रशासन निरीह बकरी बनने मे देर नहीं करती।

भारत में कानून सबके लिए बराबर हैं लेकिन लखनऊ विश्वविद्यालय में दो मानक तय हैं। यही वजह है कि कैंपस मे हुए इस हाथापाई को छात्र दबी ज़ुबान से ही सही जायज़ ठहरा रहे हैं, और आरोपी छात्रो को फूल माला पहना कर हीरो बनाया जा रहा है।

वर्तमान समय मे लविवि को छावनी में तब्दील कर दिया गया है, ऐसा लगता है यहां छात्र नहीं क्रिमिनल रहते हों। कैंपस मे लोकतांत्रिक मूल्यों को पूरी तरह खत्म किया जा रहा है, फीस की अवैध वसूली की जा रही है, भ्रष्टाचार चरम पर है। छात्रसंघ ध्वस्त किया जा ही चुका है और कैंपसे में कुछ भी गलत हो आप आवाज़ नहीं उठा सकते।

छात्रों का कहना है कि छात्रों की समस्या सुनने और उसके निस्तारण के लिए छात्रसंघ को फिर से बहाल किया जाए। महिला सुरक्षा के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट की विशाखा जजमेंट 1997 के तहत GS-CASH का भी गठन किया जाए और एक एकेडमिक महौल फिर से तैयार किया जाए ताकि सबके सहयोग और समन्यवय से कैंपस चले, प्रशासन की तानाशाही से नहीं।

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