जो कोई भी व्यक्ति अथवा संगठन धार्मिक ठप्पे का इस्तेमाल कर, समाज में कट्टरता और भेदभाव फैलाता है, वह एक स्वस्थ्य समाज के लिए खतरनाक है। कोई भी धर्म इसका अपवाद नहीं हो सकता। ईसाई मिशनरी के द्वारा एक हाथ में क्रॉस और एक हाथ में तलवार के बल पर कई देशों में ईसाईयत फैलाई गयी। साथ ही साथ साम्राज्य फैलाने का कार्य भी चलता रहा। हम इतिहास में कई धर्म-युद्ध के बारे में भी पढ़ते हैं।
‘भगवा हिंदुत्व’ भी उसी प्रकार विश्व हिन्दू परिषद् और आरएसएस जैसे कट्टर संगठनो के माध्यम से समाज में भेदभाव पैदा कर रहा है, इन संगठनों का हिंदुत्व का एजेंडा अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षा का कारण रहा है। राम मंदिर या बाबरी मस्जिद विवाद आज भी सुलझा नहीं है। बर्मा जैसे बौद्ध मतावलंबी जैसे देश में, हम शांति-प्रिय कहे जाने वाले समुदाय द्वारा हिंसक घटनाओं के देख चुके हैं।
कई मुस्लिम संगठन भी आतंकवादी घटनाओं में शरीक रहे हैं, और अलकायदा जैसे संगठन का नाम हमारे ज़हन में अब भी ताज़ा है। इन सब घटनाओं से यह स्पष्ट है कि किसी भी धर्म का इस्तेमाल कर समाज में हिंसा और भेदभाव फैलाया जा सकता है।
आज वैसे भी धर्म का रूप दिन ब दिन कुत्सित और भेदभाव वाला होता जा रहा है, जहां एक धर्म दूसरे पर हावी होना चाहता है। धर्म का अर्थ अब शांति, प्रेम, करुणा, सेवा आदि की जगह आडम्बर, संकीर्णता, हिंसा, मूढ़ता, अंधश्रद्धा आदि ज्यादा हो गया है।
ऐसे समय में वर्तमान सरकार द्वारा जेएनयू में ‘इस्लामिक टेररिज़्म’ जैसे कोर्स शुरू करने का निर्णय भारतीय समाज में बचे-खुचे धार्मिक सद्भाव के लिए बहुत ही घातक हो सकता है। सरकार पता नहीं किस मानसिकता से ग्रसित है और इससे क्या सन्देश तथा शिक्षा लोगों को देना चाहती है वही जाने, पर यदि इस्लाम के नाम पर हिंसा गलत है, तो भगवा आतंकवाद को भी ठीक नहीं कहा जा सकता।
यदि कोई कोर्स शुरू करना था तो ‘धार्मिक कट्टरता और सामाजिक समरसता’ जैसा होता, जिसमें विभिन्न देशों में धर्म के नाम पर घटी हिंसक और भेदभाव पूर्ण घटनाओं को निरपेक्ष तरीके से पढ़ाया और चर्चा करवाया जा सकता था।
वर्षों से धर्म एक ऐसा टूल रहा है जिसका इस्तेमाल कर सत्ता अपनी राजनीति कर जनता को बेवकूफ बनाती रही है। धर्म जाति-वर्ण व्यवस्था, महिलाओं के प्रति भेदभाव आदि के लिए भी सत्तासीन लोगों द्वारा ऐतिहासिक रूप से इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसका खामियाज़ा हर देश और हर समाज को झेलना पड़ा है।
भारत में आज लोकतंत्र होने के बावजूद, सरकार नफरत की राजनीति करना चाहती है और इस आधार पर सत्ता में बने रहना चाहती है, यह एक तरह से देश को अंधे कुएं में धकेलना और समाज को विभाजन की ओर ले जाना है जिसके परिणाम भले ही किसी खास राजनीतिक पार्टी को भले न झेलना पड़े, पर आम जनता को दंगे, आपसी अविश्वास और भेदभाव के रूप में अवश्य झेलना पड़ेगा। शिक्षा की संस्थाओं को भी इस प्रकार धर्म की राजनीति के लिए इस्तेमाल करना सरकार की संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है। इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है।
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