हिन्दुस्तानी संस्कृति रही है कि हम अपने और दूसरे के मज़हब और आस्था का सम्मान करते रहे हैं। हम ईद, दिवाली और होली साथ मनाते रहे हैं। खासकर जब हम स्कूल और यूनिवर्सिटी में रहते हैं तो कम से कम ये मज़हब की दीवारें हमारे बीच नही होती हैं, कुछ छात्र तो त्योहारों की छुट्टियों में घर इसलिए भी नहीं जाते हैं कि वहां कैंपस जैसी आज़ादी नही मिल पाती है।
हमने जब JNU की होली का विडियो YouTube पर देखा तो बहुत ही आश्चर्य हुआ कि ऐसी होली हमारे कैंपस (गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय) में क्यों नही होती? मैंने तो यहां तक सुना है की JNU में होली या किसी अन्य त्यौहार मनाने के लिए छात्र घर से वापस आ जाते हैं, होली की शाम होने वाले JNU के चाट सम्मलेन की बात ही अलग है।
हॉस्टल में हम सब नास्तिक होते हैं लेकिन वो वाले नास्तिक नहीं जो आप सोच रहे हैं। हमारे नास्तिक का मतलब वो लोग ही समझ सकते हैं जो अपनी ज़िंदगी के कुछ साल हॉस्टल में गुज़ार चुके हों। अलग-अलग जगहों से आए लोगों के धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति सब कुछ अलग होती है, फिर भी हम ऐसे होते है जैसे बचपन का याराना हो।
हमारे बीच जो रिश्ता होता है वो एक-दुसरे से मोहब्बत का रिश्ता होता है, एक-दुसरे की संस्कृति और आस्थाओं की इज्ज़त करने का रिश्ता होता है। नवरात्री के दिनों में हम अपने बीच लहसुन, प्याज़ वगैरह नहीं खाते हैं। मैं मांसाहारी होने के बाद भी पूरे नवरात्री के दौरान अपने दोस्तों की आस्था का सम्मान करता हूं। लेकिन ये हमारी मजबूरी नही है ये हमारा प्यार है, हमारी संस्कृति है, हमारी तहज़ीब है। यही तो भारत है और यही भारतीयता है!
AMU में रमजान में हिन्दू छत्रों को रोज़े की वजह से नही मिल रहा खाना
इस तथ्य में कितनी सच्चाई है ये तो नहीं मालूम, इस पर वहां के वर्तमान और पूर्व छात्र और वहां के प्रशासनिक अधिकारी ही बता सकते हैं कि सच्चाई क्या है। लेकिन साहब इस मुद्दे को धार्मिक रूप दिया जा रहा है, धीरे-धीरे इसका राजनीतिकरण भी होगा। फिर ये राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बना दिया जाएगा, टीवी पर बहसें चलेंगी, शोर होगा और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) को फिर धर्म के चश्मों से देखा जाएगा।
ट्वीट पर ट्वीट किए जा रहे हैं, कुछ नए और कथित न्यूज़ पोर्टल ने इसे वायरल भी किया और इसके तथ्य और भावना को बिना समझे इसका राजनीतिकरण शुरू कर दिया गया। वहां पढ़ने वाले छात्रों से तो पूछा होता कम से कम। मेरे कुछ दोस्त वहां पढ़ते हैं, मैंने जब उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि, “ऐसा कुछ नही है बस खाने के रुटीन में थोड़ा बदलाव हुआ है। बाकि हम रोज़ेदारों का एहतराम करते हैं, ताकि उन्हें बुरा ना लगे।” अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में लॉ (law) की छात्रा रश्मि सिंह ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि, “यहां खाने-पीने की कोई रोक नहीं है, हां रमजान की वजह से टाइमिंग जरूर बदल गई है। खाने वालों की संख्या कम होने की वजह से अभी उन्हें लाइट लंच दिया जा रहा है, लेकिन फिर भी ये पेट भरने के लिए ठीक-ठाक है।”
साहब अगर हमने किसी की आस्था या मज़हब की इज्ज़त कर ली तो कोई गुनाह तो नही हो गया। ये हमारे कैंपसों की बात है, हमारे साथियों और उनकी आस्था का सवाल है और ये हमारी इच्छा है साहब। मैंने कहा ना कि हम नास्तिक होते हैं और ये आप तब तक नहीं समझ पाएंगे जब तक कि आप अपनी आंखों से मज़हब का चश्मा नही उतारोगे। एक बार इस चश्मे को उतार कर देखिए, फिर आप को भी अच्छा लगेगा, आप भी लम्बी सांस ले सकेंगे, चहरे से तनाव खत्म होगा और उस पर एक प्यारी सी मुस्कान आ पाएगी।
खैर रमज़ान मुबारक और ईद में ज़रूर आइयेगा, दावत है अच्छा लगेगा हमारी नास्तिकता पर!!
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