शरजील उस्मानी:
Translated from English to Hindi by Sidharth Bhatt.
मैंने सामाजिक विज्ञान यानि कि सोशल साइंस पढ़ने के लिए इंजीनियरिंग में डिप्लोमा बीच में ही छोड़ दिया। डिप्लोमा के दौरान ना तो मुझे इंजीनियरिंग के विषयों से कोई डर लगता था और ना ही पढ़ाने वाले प्रोफेसरों से। लेकिन फिर भी मैं उन कक्षाओं में बैठने में सहज महसूस नहीं करता था, जहाँ टीचर गणित के आंकड़ों की भाषा में बात करते और बच्चे मशीनों की तरह पढ़ते और काम करते। सभी इंजीनियरिंग कॉलेज एक हद तक एक से ही होते हैं और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (ए.एम.यू.) का यूनिवर्सिटी पॉलिटेक्निक भी उससे अलग नहीं था। कैंपस की इमारतें और वहां का हरा-भरा माहौल बाहर जितना अच्छा लगता था, क्लासरूम के अन्दर वैसा नहीं था।
मुझे लिखना हमेशा से ही पसंद था। मुझे याद है जब मैं छोटा था तो ‘चाचा चौधरी’ के किस्सों को मैं अपनी कल्पनाओं के आधार पर लिखा करता था, और मेरे माता-पिता को वो कहानियाँ काफी पसंद भी आया करती थी। घर में अगर कभी मेहमान आयें तो मेरी कहानीयों पर चर्चा ना हो, ऐसा मुश्किल ही होता था और जाते-जाते वो कह जाते कि, “एक दिन बड़ा आदमी बनेगा ये।”
लेकिन जब मैंने दसवीं की परीक्षा पास की तब मुझे समझ आया कि बड़ा आदमी का मतलब केवल डॉक्टर या इंजीनियर ही होता है। दसवीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए अब मुझे मैथ्स और बायोलॉजी में से किसी एक विषय को चुनना था। मेरे स्कूल और हमारे क्षेत्र के किसी भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में ह्युमेनिटीस (आर्ट्स) के विषय नहीं पढ़ाये जाते थे, तब मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन अब ये बात मुझे बहुत परेशान करती है। उस वक्त तक मुझे पता भी नहीं था कि साइंस के अलावा और भी विषय पढ़े जा सकते हैं। दसवीं के बाद मेरा ए.एम.यू. में इंजीनियरिंग डिप्लोमा के लिए सलेक्शन हो गया। लेकिन मुझे हमेशा से ही साहित्य (लिटरेचर) में दिलचस्पी थी। मैं लिखना चाहता था।
ए.एम.यू. मेरा नया ठिकाना, एक बेहतरीन जगह थी। मेरे क्लास के अनुभव बेहतरीन थे, इन सब नें मुझे वहां रुकने के लिए बेहद आकर्षित किया। मैं पढ़ाई में अच्छा कर रहा था, फिर एक दिन एक सीनियर नें मेरा एक फेसबुक पोस्ट देखने के बाद मुझे, यूनिवर्सिटी के डिबेटिंग (वाद-विवाद) और लिटररी (साहित्य) क्लब के बारे में बताया। वहां जाने के बाद मेरी मुलाकात ऐसे छात्रों से हुई जो वहां लेखन और वाद-विवाद की कला सीखने आते थे। अलग-अलग मुद्दों पर होने वाली चर्चाओं और रचनात्मक लेखन के इन मंचों ने मुझे काफी आकर्षित किया। इस क्लब में ऐसे लोगों की भरमार थी जो लेखक या कवि बनने के सपनों को लेकर बातें किया करते थे। इससे पहले कि मुझे कुछ समझ आता, मैं डिप्लोमा में दाखिला लेने के अपने फैसले के बारे में फिर सोचने लगा।
मैंने इस क्लब में नियमित रूप से जाना शुरू कर दिया। मुझे इसका जरा भी अंदाजा नहीं था, कि इस क्लब का उम्दा माहौल और वहां की रचनात्मकता की वजह से मेरी इंजीनियरिंग में रूचि पूरी तरह से ख़त्म हो जाएगी और मुझे एक दिन मेरे माता-पिता से साहित्य में मेरी रूचि की बात स्वीकार करने के लिए मजबूर कर देगी। जल्द ही मैंने मेरी क्लासेज जाना कम कर दिया और कुछ समय के बाद मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी तरह से ही बंद कर दी। मैंने पहले सेमेस्टर की परीक्षाएं भी नहीं दी। जब मेरे माता-पिता को इस बारे में पता चला तो वो इससे बेहद नाराज़ हो गए। लेकिन उन्होंने मुझे खुद को साबित करने का एक और मौका दिया, लेकिन इंजीनियरिंग के ज़रिये ही। पर अगला साल भी ऐसे ही गुजर गया। मेरे माता-पिता मुझसे बेहद नाराज़ थे और दुखी भी। जब भी मेरी उनसे फोन पर बात होती, तो उनकी आवाज़ में यह दुःख साफ़ नज़र आता। मेरे पिता ने तो मुझसे एक बार साफ़-साफ़ कह दिया कि उन्हें मुझ पर कोई भरोसा नहीं है। केवल इसलिए क्यूंकि मैंने अपनी पसंद की कोई चीज चुनी थी। वह समय मेरे लिए बेहद मुश्किल था। मुझे अपने माता-पिता का भरोसा वापस पाने के लिए खुद को साबित करना था। मुझे एहसास हुआ कि इस तरह के किस्से मध्यम वर्गीय परिवारों में आम हैं, और मुझे कभी-कभी हैरानी होती थी कि डॉक्टर या इंजिनियर के पेशे से इतना लगाव क्यूँ है।
तब मेरे पास कोई जवाब नहीं था, पर मुझे लगता है कि अब मेरे पास इस सवाल का जवाब है। मेरे विचार में मध्यमवर्गीय परिवार, ज्यादातर उनके पास जो होता है उसी में खुश रहते हैं। किसी डॉक्टर या इंजिनियर को समाज में एक सम्मानित व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है क्यूंकि वो किसी और से तुलनात्मक रूप से ज्यादा कमा रहे होते हैं। साथ ही वो जिस जगह रहते हैं उसके आस-पास उनका नाम और शोहरत भी होती है। और मुझे लगता है पैसे के साथ शोहरत ही इस तरह की सोच का कारण है।
ए.एम.यू. के माहौल से मुझे खुद पर इतना भरोसा हो चुका था कि, मैंने मेरे कुछ दोस्तों के साथ मिलकर कैंपस में हर महीने एक न्यूज़लैटर प्रकाशित करना शुरू कर दिया। इसके जरिये मैं जिन प्रोफेसरों के संपर्क में आया, उन्होंने भी मुझे अपनी रूचि के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। एक बार छुट्टियों में जब मैं घर पर था और एक रिश्तेदार को जब ये पता चला कि, मैंने साहित्य और सामाजिक विज्ञान में आगे पढने के लिए इंजीनियरिंग डिप्लोमा छोड़ दिया है तो उन्होंने कहा ये पागलपन है। आर्ट्स तो लड़कियों के लिए होता है! वहीं ए.एम.यू. में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर डॉ. दानिश को जब आगे की पढाई के लिए मेरे साहित्य को चुनने के फैसले के बारे में पता चला, तो उन्होंने मुझसे हाथ मिलाकर बस एक ही शब्द कहा-‘कांग्रचुलेशन’।
इन दो सालों के अनुभवों के बाद, मेरे एक सीनियर ने मुझे समझाया कि कैसे रचनात्मक और आज़ाद सोच समाज को लेकर किसी का नजरिया बेहद सकारात्मक सांचे में ढाल सकती है। मुझे एहसास हुआ कि ना जाने भविष्य के कितने नेता, लेखक और कलाकार इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की बलि चढ़ जाते हैं। मुझमे मेरे माता पिता को अपने पसंद के विषयों को पढने की बात कह सकने का साहस आ पाया, हालांकि उन्हें मनाने में कुछ समय लगा, मुझे पता है कि हमसे से कई लोग ये नहीं भी कह पाएंगे। बेहतरीन हिन्दी कवि डॉ. कुमार विश्वास की भी कहानी मेरी कहानी से मिलति जुलती है, जिसे वो एक लाइन में कुछ इस तरह से कहते हैं, ‘एक बुरा इंजीनियर बनने से अच्छा एक अच्छा कवि बनना है।’
आपके कॉलेज कैंपस के मुद्दों को कैंपस वाच के जरिये लोगों तक पहुंचाने के लिए हमें campus@youthkiawaaz.com पर ईमेल करें । कैंपस वाच न्यूज़ लैटर पर सब्सक्राइब करने के लिए यहाँ क्लिक करें।
For original article in English click here.
The post क्यूँ मैंने सोशल साइंस पढ़ने के लिए इंजीनियरिंग में डिप्लोमा बीच में ही छोड़ दिया appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.