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“शिक्षा के राजनीतिकरण से कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला बन गए हैं”

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Students sitting in class in collegeStudents sitting in class in college

प्राचीन काल में भारत में स्थित शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केंद्रों को विदेशी आक्रमाणकारियों ने नष्ट किया होगा या नहीं, यह बात इतिहास के पन्नों तक ही सीमित है। लेकिन वर्तमान में भारत में शिक्षा व्यवस्था की बदहाली के लिए सरकारें ही जिम्मेदार है। शिक्षा के संबंध कोई ठोस नीति नहीं है। साल दर साल बदलने वाले पाठ्यक्रमों के चलते हमेशा दुविधा में रहने वाले बच्चे व अभिभावकों के साथ ही शिक्षकों को भी पता नहीं चलता कि आखिर करना क्या है?

शिक्षा पर राजनीति पड़ी भारी

राज नेताओं ने अपने तात्कालिक फायदे के लिए इतिहास को तोड़ते-मरोड़ते हुए न जाने कितने पन्नों को किताबों से गायब करवा दिया और न जाने कितने पन्नों को जुड़वा दिया। सरकारों की शिक्षा के प्रति उदासीन रवैये को बताने के लिए यहां-वहां खंडहर हुए प्राथमिक विद्यालय और राजनीति के अखाड़े बने विश्वविद्यालय कैंपस बयान करने के लिए काफी है।

शिक्षा में अव्वल रहा देश अब पिछड़ रहा है

ऐसा भी तब है कि जब एक शिक्षक डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के साथ-साथ बचपन में अखबार बेचकर कर पढ़ाई करने वाले मिसाइल मैन डा. एपीजे अब्दुल कलाम देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर चुके हो। यह बात समझ नहीं आती है कि आखिर जो देश शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रह चुका हो, जहां के नागरिकों ने बदहाली में जीवन-यापन करते हुए महत्वपूर्ण पदों को संभाला हो, वहां आज भी शिक्षा व्यवस्था बदहाल सी ही दिखती हो।

मौजूदा शिक्षा व्यवस्था है चिंता का विषय

इच्छा शक्ति के अभाव और राजनीतिक दाँवपेंच के चलते हमारा भविष्य क्या होगा, यह बात तो आने वाला भविष्य ही बताएगा। लेकिन फिलहाल तो हालात चिंता का विषय है ही। जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हो, सरकारें विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाएं तक देने में आनाकानी करती हो, तब ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएंगे।

न फैकल्टी न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लासरूम और न ही पर्याप्त सुविधाएं। बस धड़ल्ले से एडमिशन और फीस का घालमेल। भारत रहा होगा कभी विश्व में शिक्षा का केन्द्र, लेकिन अब तो विश्वविद्यालय कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर तब्दील होते जा रहे है। जिस दौर में गुरुओं की जगह सर ने ले ली हो, उस दौर में सिर ही उठेंगे। उन सिरों में क्या होगा, यह गुजरे समय की बात हो चुकी है। वह दौर और था जब गुरु को सर्वोपरि माना जाता था। लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण के चलते गुरु -शिष्य की परंपरा खत्म सी हो गई है। अब पैसे के दम पर हासिल की गई शिक्षा में गुरु-शिष्य वाली जैसी कोई बात नहीं हो सकती है।


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