गौरीपुर गाँव की सुलेखा अपने घर के बाहर कुछ सहेलियों के साथ बैठी है। उसकी उम्र यही कोई 16 साल की होगी। आंगन में बैठी सुलेखा बांस की टोकरियां बना रही है। उसके साथ बैठी अन्य लड़कियां भी इसी काम में मसरूफ हैं। इन सबकी उम्र भी सुलेखा की उम्र के बराबर है। हां, इन सबमें एक समानता और भी है। ये सभी लड़कियां स्कूल नहीं जाती।
कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। आगे गाँव से कुछ ही दूरी पर कुछ बच्चे, जिनमें लड़के भी हैं और लड़कियां भी, मवेशी चराते और खेलते भी मिल गए। जब मैं गांव में घुस रहा था तो मुहाने पर ही एक प्राथमिक पाठशाला है, जहां आठवीं तक की कक्षाएं चलती हैं। विद्यालय का नाम है, उत्क्रमित मध्य विद्यालय गौरीपुर।
यह झारखण्ड के साहिबगंज ज़िले के बोरियो प्रखंड के अंतर्गत आता है। यहां जिन भी बच्चों का ज़िक्र किया गया है, इनमें से अधिकांश ने विद्यालय छोड़ दिया है और कुछ बच्चे ऐसे भी मिल गए, जो नियमित तौर पर विद्यालय नहीं जाते।
हमने इस बाबत विद्यालय की प्राध्यापिका एग्नेस सोरेन से बातचीत की। उन्होंने बताया कि विद्यालय में कुल 250 बच्चे नामांकित हैं, जिनमें से 114 लड़के हैं और 136 लड़कियां हैं। उपस्थिति के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि कुल नामांकित बच्चों में से केवल 140 बच्चे ही नियमित तौर पर विद्यालय आते हैं।
कारण पूछने पर वो बताती हैं कि कुछ बच्चे अपने माता-पिता के खेती, मज़दूरी, पहाड़ से लकड़ी लाने जैसे कामों में हाथ बटांते हैं। कुछ बच्चे विद्यालय इसलिए नहीं आते क्योंकि उनके अभिभावक जागरूक नहीं हैं। उन्होंने आगे बताया कि कुछ बच्चों ने विद्यालय में नामांकन तो करवाया है पर वे दूसरे निजी विद्यालयों में जाते हैं क्योंकि उनके अभिभावकों का मानना है कि अंग्रेज़ी माध्यम के निजी विद्यालयों में सरकारी विद्यालयों के मुकाबले शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर होती है।
उन्होंने कहा कि अभिभावकों की आशंका काफी हद तक सही भी है, क्योंकि उनका विद्यालय शिक्षकों की कमी का सामना कर रहा है। पंजिका देखी तो प्राध्यापिका की बात स्पष्ट भी हो गई। विद्यालय में शिक्षकों के कुल 4 स्वीकृत पद हैं, जिनमें 2 दो पद सरकारी शिक्षकों के हैं और 2 पारा शिक्षकों के लेकिन यहां फिलहाल केवल 2 शिक्षक ही कार्यरत हैं, जिनमें एक खुद प्राध्यापिका एग्नेस सोरेन हैं और दूसरे पारा शिक्षक मो0 मुख्तार आलम हैं।
अब सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिस विद्यालय में 250 बच्चे नामांकित हो और 150 बच्चे नियमित तौर पर उपस्थित होते हो वहां पर आठवीं तक की पढ़ाई महज़ 02 शिक्षकों के भरोसे कैसे चलती होगी। अब हालात ऐसे हो तो फिर प्राथमिक विद्यालय में ड्रॉपआउट की समस्या तो बनेगी ही।
ड्रॉपआउट यानि बच्चों का असमय विद्यालय छोड़ देना

ड्रॉपआउट कोई नवीन अवधारणा नहीं है। भारत में असमय विद्यालय छोड़ने या स्कूल ड्रॉपआउट की प्रवृत्ति रही है या यूं कहें कि समस्या रही है।
बीच में विद्यालय छोड़ने के कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण रहे हैं-
- जागरूकता की कमी
- विद्यालय में आधारभूत संरचना की कमी
- शिक्षकों की कमी और
- लोगों के मन में सरकारी स्कूलों के प्रति नकारात्मक भावना
ग्रामीण क्षेत्रों में यातायात की सुविधा का अभाव और विद्यालय से दूरी भी स्कूल ड्रॉपआउट की वजहे हैं। मैं इन तमाम समस्याओं की आंकड़ों सहित व्याख्या प्रस्तुत करूंगा ताकि ड्रॉपआउट की समस्या को ज़्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सके।
शुरुआत आधारभूत संरचना से करते हैं, क्योंकि किसी भी विद्यालय में सबसे प्राथमिक आवश्यकता यही होती है।
भवन-
अपने शोध के लिए मैं करीब 10 प्राथमिक विद्यालयों में गया और कई अन्य विद्यालयों के बारे में समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं द्वारा अध्ययन किया। मैंने पाया कि प्राथमिक पाठशाला चलाने के लिए भवन बनाए तो गए हैं पर इनमें से अधिकांश काफी जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं।
कहीं से प्लास्टर उखड़ रहा है तो कहीं से दीवारों में भयावह दरारें थी। दीवारों पर रंग-रोगन हुए सालों बीत गए हैं और फर्श उखड़ा होने के कारण बच्चों के बैठने लायक नहीं रह गए हैं। जिन 10 विद्यालयों में मैं गया था उनमें से अधिकांश की हालत ऐसी ही थी।
सरकार के दिशा-निर्देश के मुताबिक प्रत्येक विद्यालय में चाहरदीवारी होनी चाहिए ताकि बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके लेकिन चाहरदीवारी के नाम पर कुछ विद्यालयों में बांस की बेतों का घेरा बना दिया गया था तो कुछ स्कूलों ने इसकी भी ज़रूरत नहीं समझी। हैरानी की बात यह थी कि इनमें से कई विद्यालय सड़क के बिलकुल पास थे।
जब इस बारे में मैंने शिक्षकों से बात कि तो उनका कहना था कि सरकार और प्रशासन की तरफ से सही समय पर सही तरीके से फंड रिलीज़ नहीं किया जाता। जब विद्यालय में भवन ही ना हो तो फिर वहां शिक्षा किस प्रकार से दी जाएगी। हालांकि, शिक्षकों ने जो कहा उसमें काफी हद तक सच्चाई नज़र आती है।
अखबारों के पन्ने पलटते हुए हमने वैसे भी ग्रामीण इलाकों में कई बार पेड़ के नीचे विद्यालय चलते देखा है। यही कारण है कि अभिभावक अपनी आय के दायरे से बाहर जाकर भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना पसंद करते हैं। सीलन से भरी क्लासरूम की दीवारें बताती हैं कि सरकार और प्रशासन अभी शिक्षा के क्षेत्र में कितने गंभीर हैं।
शौचालय की कमी दे रही शिक्षा को मात
सुनने या पढ़ने में भले ही यह अटपटा लगे पर शौचालय की कमी प्राथमिक विद्यालयों और माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर ड्रॉपआउट के बड़े कारणों में से एक है। इस वजह से पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने के मामले सबसे ज़्यादा लड़कियों में हैं।
आंकड़ों को देखें तो जिन छात्राओं ने भी विद्यालय बीच में छोड़ा है, वो कक्षा छठवीं के बाद छोड़ा है। इस समय इनकी उम्र करीब 15-16 के बीच होती है। कारण है, विद्यालयों में शौचालय का नहीं होना। जब तक उनकी उम्र कम होती है तब तक तो कोई खास समस्या नहीं आती लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उनकी सुरक्षा और लाज जैसे कारक जुड़ जाते हैं। स्वास्थ्य की समस्या तो खैर है ही।
लड़के फिर भी खुले में चले जाते हैं लेकिन लड़कियों के लिए यह रोज़-रोज़ संभव नहीं हो पाता। इसलिए, स्कूलों में शौचालय का होना प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अधिकांश स्कूलों में शौचालय की सुविधा नहीं है।
मैंने जिन विद्यालयों का दौरा किया उनमें से कुछ स्कूलों में शौचालय की सुविधा तो थी पर वे इस्तेमाल के लायक नहीं थे। वहां गंदगी का अंबार लगा था और पानी की भी सुविधा नहीं थी।
इन्हीं में से एक विद्यालय की छात्रा है सुलेखा, जिसने स्कूल जाना छोड़ दिया है। अक्सर शौच के लिए जाने के दौरान लड़कियों और महिलाओं के साथ कुकृत्य की घटनाएं सामने आती रहती हैं। लोक लाज के कारण भी बच्चियां स्कूल छोड़ रही है।
हालांकि वर्तमान सरकार ने सभी घरों और विद्यालयों में शौचालय बनाना अनिवार्य किया है लेकिन विडंबना यह रही है कि राज्य सरकारों ने आनन-फानन में अपने राज्य को खुले में शौच से मुक्त घोषित तो कर दिया है लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। अब जब घरों में शौचालय नहीं बनवाए गए हैं तो स्कूलों से इसकी अपेक्षा रखना बेमानी होगा।
यातायात के साधनों की कमी भी बन रही बड़ा कारण

आवागमन एक बड़ी समस्या है, जिसने ड्रॉपआउट में बड़ी भूमिका निभाई है। यह ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलता है। आंकड़ों की माने तो देशभर में कई विद्यालय सुदूर इलाकों में हैं और यहां यातायात सुविधाओं का अभाव एक बड़ी समस्या है।
बच्चों को कच्चे या फिर दुर्गम पहाड़ी रास्तों से होकर स्कूल जाना पड़ता है। अगर सड़के हैं भी तो यहां आवागमन का कोई साधन नहीं है। वैसे में बच्चों के पास एक ही विकल्प बचता है और वो है मीलों पैदल चलकर स्कूल जाना। आए दिन हमने अखबारों में पढ़ा है कि किस प्रकार बच्चे मीलों का सफर तय करके स्कूल जाते हैं। ऐसा करना जोखिम से परे नहीं है, क्योंकि अगर इतनी दूर जाते हुए किसी भी बच्चे के साथ कोई घटना घट जाती है तो यह काफी चिंताजनक बात होगी।
लड़कियों के मामले में तो स्थिति और भी ज़्यादा विकट है क्योंकि उनके साथ यौन शोषण, अपहरण और बलात्कार की घटनाएं घटने का भय होता है।
हाल ही में हरियाणा में एक मामला सामने आया था जहां रेवाड़ी में माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं होने के कारण वहां की लड़कियों ने गांव में हाई स्कूल खोलने की मांग को लेकर भूख हड़ताल की थी।
उनको कहना था कि गाँव में स्कूल ना होने के कारण उनको कई सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लंबी दूरी तो तय करनी ही पड़ती है उसके ऊपर से उन्हें रास्ते में यौन उत्पीड़न का सामना भी करना पड़ता है।
देखा जाए तो यह पूरे देशभर की दिक्कत है, जिसकी वजह से हर साल हज़ारों बच्चों को मजबूरन स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ती है। यातायात के बेहतर और सुरक्षित साधन हों तो ड्रॉपआउट की समस्या से निजात पाया जा सकता है।
आजीविका बन रही है राह में रोड़ा-
स्कूलों में ड्रॉपआउट के कारणों में आजीविका की समस्या भी एक बड़ा कारण है। ग्रामीण हो या शहरी, प्रायः यह देखा गया है कि सरकारी स्कूलों में ज़्यादातर गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं।
ये ऐसे परिवार हैं, जो असंगठित रोज़गार कार्यों में लगे हैं, जैसे कि कोई छोटी–मोटी दुकान, छोटी फैक्ट्रियों में दिहाड़ी मज़दूर, गाँव में भूमिहीन कृषक, मज़दूर या कोई परंपरागत व्यवसाय।
इसकी वजह से दो तरीके से पढ़ाई प्रभावित होती है। पहली तो इस वजह से कि प्रायः ऐसे कामों में बच्चे भी अपने अभिभावक का हाथ बंटाते हैं। तो इस वजह से मौसम के हिसाब से उन्हें अपनी पढ़ाई रोकनी भी पड़ती है।
जब मैंने शोध के दौरान ग्रामीण इलाकों को दौरा किया तो अप्रत्याशित ढंग से बच्चे गायब मिले। पूछने पर बताया गया कि अभी फसल कटने का समय है और अधिकांश बच्चों के माता-पिता खेतों में गए हुए हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों के ज़िम्मे घर संभालने का काम आ जाता है।
कभी-कभी बच्चों को खुद भी काम पर जाना पड़ता है। अगर किसी के पिता सुनार, लोहार, बढ़ई या फिर मछली मारने का काम करते हैं तो भी बच्चों को परंपरागत व्यवसाय में हाथ बंटाना पड़ता है। इसके पीछे परिवारों के अपने तर्क भी हैं।
मैंने कुछ अभिभावकों से बात की और पाया कि वे अपने बच्चों को ज़्यादा नहीं पढ़ाना चाहते। उन्हें यह लगता है कि पढ़ाई-लिखाई का कोई मतलब नहीं और इससे अच्छा कि उसकी संतान पंरपरागत व्यवसाय सीख ले। ऐसे में बच्चों की शिक्षा भगवान भरोसे चल रही है।
पलायन बन रहा है बड़ा कारण
पलायन पर शायद इतना ध्यान नहीं दिया गया लेकिन यह एक बड़ी समस्या है, जिसने बच्चों को अपनी पढ़ाई छोड़ने पर विवश किया है। कई राज्य ऐसे हैं, जहां आजीविका और रोज़गार की संभावनाएं बहुत कम हैं।
झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश वैसे राज्य हैं, जहां रोज़गार की संभावनाएं काफी कम हैं, इसलिए रोज़गार की तलाश में लोग यहां से दूसरे राज्यों की ओर रूख करते हैं। बाकी घर द्वार, माल सबकुछ बच्चों के भरोसे रह जाते हैं और उन्हें जबरन स्कूल छोड़ना पड़ता है। यही नहीं कभी-कभी तो बच्चों को ही दूसरे राज्यों का रूख करना पड़ता है। इसकी कोई निश्चिंतता नहीं होती कि वे कभी लौटेंगे भी या नहीं। अगर लौट भी आए तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे शिक्षा की दुनिया से बहुत दूर जा चुके होते हैं।
मैंने भ्रमण के दौरान पाया कि स्कूल में नामांकित कई बच्चे काफी दिनों से स्कूल से नदारद हैं, पूछने पर पता चला कि वे तो अब गांव में है ही नहीं क्योंकि कोई काम दिलाने का आश्वासन देकर उनको बाहर ले गया है। इस प्रकार हमने देखा कि पलायन ने भी बच्चों के स्कूल छोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है।
सरकारी स्कूलों की खराब गुणवत्ता
सरकारी स्कूल अपनी खराब गुणवत्ता को लेकर हमेशा से आलोचनाओं का सामना करते रहे हैं। खासकर अपनी लापरवाहियों को लेकर। आए दिन स्कूल में शिक्षकों की मनमानी, लापरवाही या फिर अयोग्यता की कहानियां अखबारों, टेलीविज़न आदि में आती रहती हैं।
सिफारिश पर नियुक्तियां और फिर शिक्षकों की कमी, ये दो बड़े मसले हैं जिनपर ड्रॉपआउट की ज़िम्मेदारी डाली जा सकती है। फिलहाल देश के तमाम प्राथमिक और सरकारी स्कूल शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं।
आंकड़ों की मानें तो अभी देशभर में जितने बच्चे नामांकित हैं और जितने विद्यालय खोले गए हैं इसके हिसाब से 5 लाख से ज़्यादा शिक्षकों की कमी है। हर साल विभिन्न समितियों की रिपोर्ट में सरकार का ध्यान इस ओर दिलाया जाता है, हो-हल्ला मचाया जाता है लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला ही रहता है। अब अगर प्राथमिक विद्यालय शिक्षकों की इतनी भारी कमी से जूझ रहे हों तो फिर इसकी गुणवत्ता पर सवाल उठना लाज़िमी है।
जो शिक्षक हैं तो उनके साथ समस्या यह है कि वे प्रशिक्षित नहीं हैं। विशेषज्ञ शिक्षकों की कमी है। कई जगह देखा जाता है कि एक ही शिक्षक सारे विषय पढ़ा रहा है। ऐसे में सरकारी स्कूलों की विश्वसनीयता खतरे में है। अभिभावक भी यह मानते हैं कि थोड़ा खर्च सही पर अच्छी शिक्षा के लिए वे अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम वाले निजी स्कूलों में पढ़ाना पसंद करेंगे।
इसलिए अगर कोई बच्चा नियमित तौर पर सरकारी स्कूल में नहीं आ रहा है तो इसका मतलब केवल बच्चों का स्कूल छोड़ना नहीं है बल्कि हो सकता है कि वो किसी निजी विद्यालय में चला गया हो।
बाल मजदूरी बना शिक्षा के लिए अभिशाप
बाल मजदूरी एक बड़ा कारण है, जिसने ड्रॉपआउट में बड़ी भूमिका निभाई है। बच्चों को छोटी उम्र में ही काम पर लगा दिया जाता है क्योंकि ये कम मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। सस्ती मजदूरी पर काम करने की वजह से इनकी मांग ज़्यादा रहती है।
खासकर उन उद्योगों में जहां इनके मां-बाप काम करते हैं। बच्चे काम करते हुए ज़्यादा डिमांड नहीं करते हैं। यही कारण है कि उनकी ज़्यादा मांग रहती है। बच्चियों को तो हमेशा से घरेलू बनना सिखाया जाता है इसलिए अपेक्षाकृत लड़कियों में ड्रॉपआउट का प्रतिशत ज़्यादा है।
ड्रॉपआउट के राज्यवार आंकड़ें

विभिन्न राज्यों में स्कूल ड्रॉपआउट के आंकड़े अलग-अलग हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि विभिन्न मसलों पर इन राज्यों में विविधता है। कहीं अर्थव्यवस्था कमज़ोर है, कहीं भौगोलिक दशाएं खराब हैं तो कहीं सरकारी नीतियों में खामी है। पूर्वोत्तर राज्यों की बात करें तो यहां समस्या भौगोलिक है।
यहां का अधिकांश इलाका पर्वतीय और घाटियों वाला है। कहीं-कहीं घने जंगल हैं। यातायात की सुगमता का भी अभाव है। इसके अलावा एक और बड़ी वजह इन इलाकों में पनपता आतंकवाद है। ये तमाम वजहें हैं जिसने बच्चों को स्कूल से दूर रखा है।
इन राज्यों में शामिल हैं मिज़ोरम, असम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश। यहां ड्रॉपआउट के आंकड़ें कुछ इस प्रकार हैं-
- असम – 7.44%
- मिजोरम – 12.96%
- मेघालय – 10.34%
कुछ और राज्य इस फेहरिस्त में शामिल हैं, जहां की भौगोलिक परिस्थितियां शिक्षा में बड़ी बाधक हैं। इनमें मैदानी राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ भी शामिल हैं, जहां के घने जंगल और पठार यातायात की दुर्गमता पेश करते हैं और गरीबी एवं लाचारी की आड़ में पनपता नक्सलवाद एक बड़ा कारण है जिसने ड्रॉपआउट की संख्या को बढ़ाया है।
एक प्रकार का भय स्थानीय बच्चों को शिक्षा हासिल करने से रोकता है। आए दिन ऐसा होता है कि नक्सलियों या फिर सुरक्षाबलों द्वारा स्कूलों में कैंप लगा दिए जाते हैं। ये कैंप कई-कई दिनों तक जारी रहते हैं। ऐसे में बच्चे यदि विद्यालय छोड़ देते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए लेकिन यह स्थिति दुखद है।
नीतिगत खामियों वाला राज्य
कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां की नीतिगत खामियों के कारण वहां ड्रॉपआउट रेट बहुत ज़्यादा है। ऐसे राज्यों में शामिल हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि। इन राज्यों में ड्रॉपआउट का आंकड़ा इस प्रकार है-
उत्तर प्रदेश – 7.08%
मध्य प्रदेश – 10.14%
इस प्रकार हमने देखा कि यातायात, दुर्गमता, अशिक्षा, गरीबी, उग्रवाद और हिंसा जैसे कारण हैं ड्रॉपआउट के पीछे।
ड्रॉपआउट रोकने के लिए सरकारी प्रयास
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 शिक्षा का अधिकार देता है, जिसके तहत 6 साल से लेकर 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना सरकार की ज़िम्मेदारी है। इसके अलावा राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत में भी अनिवार्य शिक्षा की बात कही गई है।
इसलिए देश के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा देना राज्य का कर्तव्य भी है और बाध्यता भी। सरकार ने समय-समय पर विभिन्न योजनाएं चलाई हैं, जिनमें सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील, एकलव्य विद्यालय, कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय आदि प्रयास किये जा रहे हैं।
कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय
बच्चियों में सबसे ज़्यादा ड्रॉपआउट रेट देखा गया है, क्योंकि शौचालय से लेकर यातायात और सुरक्षा का मसला सबसे ज़्यादा उन्हीं के साथ होता है। सरकार ने इससे निपटने और अच्छी शिक्षा देने के लिए इन आवासीय विद्यालयों का निर्माण करवाया ताकि एक बेहतर वातावरण में उनकी शिक्षा-दीक्षा हो सके। हालांकि अभी भी इन योजनाओं में कई समस्या से निपटना बाकी है।
मिड-डे-मिल की योजना
प्रायः यह देखा गया था कि बच्चे दोपहर को खाना खाने घर जाते थे और फिर वापस स्कूल नहीं आते थे। वे अक्सर घर के कामों में लग जाते थे। इससे स्कूलों में उपस्थिति भी प्रभावित होती थी और पढ़ाई भी।
इस समस्या से निपटने के लिए ही सरकार ने मिड-डे-मील योजना की शुरुआत की जिसके तहत बच्चों को दोपहर में स्कूल में ही पर्याप्त और पौष्टिक खाना देने की व्यवस्था की गई। इसके सकारात्मक परिणाम निकले और बच्चों की उपस्थिति बढ़ी।
हालांकि हाल के कुछ दिनों में मिड-डे-मील में छिपकली या सांप गिरने की घटना या फिर किसी और तरीके से विषाक्त भोजन परोसने की घटनाओं ने इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये हैं और इनसे निपटना ज़रूरी है।
एकलव्य विद्यालय
ड्रॉपआउट के आंकड़ों को देखें तो पता लगता है कि ज़्यादातर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। कारणों की चर्चा भी हम कर चुके हैं। इस समस्या पर गंभीरता से सोचने के बाद एकलव्य विद्यालयों की स्थापना की गई।
समेकित शिक्षा योजना की शुरुआत की गई
प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान के तहत साल 2015-16 के 15 लाख अतिरिक्त अध्यापक पद स्वीकृत किये गए हैं। उत्तराखण्ड में सपनों की उड़ान नाम का कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य ड्रॉपआउट रेट में कमी लाना है।
ड्रॉपआउट के नकारात्मक प्रभाव
ड्रॉपआउट की वजह से स्कूली शिक्षा पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। खासकर ग्रामीण इलाकों में बच्चों की शिक्षा पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इससे संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। मानव संसाधन तैयार करने के लक्ष्य को झटका लगता है।
एक बड़ी आबादी सरकार पर अतिरिक्त बोझ की तरह होती है, जिसकी ज़रूरतों का ध्यान सरकार को रखना पड़ता है और देश अन्य मुद्दों पर ध्यान नहीं दे पाता, इसलिए ज़रूरी है कि इन समस्यायो पर ध्यान दिया जाए और ठोस कदम उठाये जाएं। तभी इससे निजात मिलेगी और शिक्षित समाज और देश का निर्माण हो पाएगा।
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